प्रतिजैविक औषधियों के अविवेकपूर्ण प्रयोग के जोखिम
1 min readसंपूर्ण विश्व में मनुष्यों द्वारा प्रतिजैविक औषधियों (एंटीबायोटिक्स) के, बिना चिकित्सक की पर्ची के, प्रयोग में 36% वृद्धि दर्ज हुई है। इस वृद्धि को निश्चित रूप से शोचनीय कहा जाएगा। परंतु भारत के संदर्भ में इससे संबंधित आंकड़ा और भी गंभीर चिंता का विषय है। उल्लेखनीय है कि अपने देश में पिछले कुछ वर्षों में पूर्वोक्त औषधियों की,बिना चिकित्सक की सलाह के, खपत में 62% बढ़ोतरी देखने में आई है। बिना अर्हित चिकित्सक के सुझाए, प्रतिजैविक औषधियों की इतनी अधिक मात्रा में खपत के अतिशय चिन्ता का विषय होने के दो प्रमुख कारण हैं -एक तो यह कि इन दवाओं के अविवेकपूर्ण प्रयोग के चलते मानव शरीर में उपजी व्याधियों पर लक्षित प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, क्योंकि जिन जीवाणुओं के संक्रमण के विरुद्ध उनका विकास और उत्पादन किया जाता है वे कालांतर में अपनी संरचना में परिवर्तन कर इन औषधियों के आदी हो जाते हैं और इन्हें निष्प्रभावी बना देते हैं। दूसरे यह कि प्रतिजैविक औषधियों के अनुचित प्रयोग से मानव शरीर पर अनेक नए-नए दुष्प्रभाव देखने में आते हैं जो दुसाध्य अथवा असाध्य होते हैं।चिकित्सक के परामर्श अनुसार भी प्रतिजैविक दवाइयां लेने के खतरे कम नहीं है। इनसे पेट संबंधी समस्या उदाहरणार्थ-पेचिश हो सकती है। ये किसी एलर्जी का कारण भी बन सकती हैंं तथा गुर्दों व जिगर सम्बन्धी समस्याओं को भी जन्म दे सकती हैंं। प्रतिजैविक औषधियों के बिना सोचे समझे प्रयोग ने तो परिस्थितियों को बेहद जटिल बना कर रख दिया है। इससे ऐसी ऐसी नई-नई बीमारियों देखने में आ रही हैंं जिनके विषय में पहले कभी देखा-सुना नहीं गया है। जहां इन दवाइयों का उद्देश्य रोगों को कम कर के पीड़ितों को राहत प्रदान करने का था वहां रोगियों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है और अस्पतालों की बढ़ती संख्या भी उनके लिए कम पड़ती जा रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो उल्टी गंगा बहने लगी है। कुल मिलाकर ऐसा होना राष्ट्रवासियों के स्वास्थ्य,जीवन और जीवन की गुणवत्ता – सबके लिए खतरे की घंटी है। यूं भी सरकार के तमाम दावों और प्रयत्नों के बावजूद भारत जैसे विशाल राष्ट्र में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति न केवल दयनीय अपितु भयावह है तथा कई कारणों से देशवासियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है। यह जानना हम सबके लिए आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि प्रतिजैविक दवाओं की पैकिंग पर अनिवार्य रूप से लाल रंग की लकीर खिंची होती है जिससे इनकी पहचान करना किसी के लिए भी अत्यंत सुगम होता है। ऐसी औषधियां जिन्हें चिकित्सक की पर्ची के बिना खरीदा जा सकता है,ओटीसी अर्थात over-the-counter drugs कहलाती हैंं। इनके प्रयोग की विधि(मात्रा व अवधि)पैकिंग पर ही वर्णित होती है जबकि अनुसूची ‘एच’,अनुसूची ‘एच1’ व अनुसूची ‘एक्स’ में उल्लिखित औषधियां चिकित्सकीय परामर्श के बिना नहीं खरीदी जा सकती हैं। यद्यपि चिकित्सक की सलाह के बिना इन्हें खरीदना क़ानूनन अपराध है तथापि दवा बिक्रेता अधिक कमाई के लालच में समस्त विधिक प्रावधानों को धता बताते हुए इनकी बिक्री अबाध रूप से,धड़ल्ले से करते हैं। एक तो सरकार के पास इतना अमला नहीं होता है कि अनैतिक आचरण में संलिप्त ऐसे कारोबारियों की निरंतर निगरानी की जा सके, दूसरे- जो गिने-चुने कर्मचारी होते हैं वे ऐसे व्यवसायियों से सांठगांठ कर लेते हैं। भारत में बिना चिकित्सक की अनुशंसा के प्रतिजैविक औषधियों के प्रयोग के दो प्रमुख कारण-निर्धनता और अशिक्षा हैंं। निर्धन व्यक्ति यदि साधारण बीमारी के उपचार के लिए भी सरकारी अस्पताल का रुख़ करता है तो कमीशन के लालच में डॉक्टर उसे बेहद महंगी दवाइयां लिख देते हैं जिन्हें खरीदना उसके बूते की बात नहीं होती है। गरीब लोग, बिना अवकाश के, हर रोज़ मेहनत मजदूरी करके अपना पेट भरते हैं। अतः सरकारी चिकित्सालयों की लंबी कतारों में घंटों खड़े रहकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करना भी उनके लिए आर्थिक रूप से घाटे का सौदा होता है। नतीजतन वे बार-बार झोलाछाप डॉक्टरों के हत्थे चढ़ते रहते हैं। एक ओर निजी स्वास्थ्य संस्थानों के चिकित्सक बतौर परामर्श शुल्क मोटी रकम दवाइयों की महंगी कीमत के अतिरिक्त वसूलते हैं तो दूसरी ओर सरकारी डाक्टरों द्वारा सुझाई गई दवाइयां भी अक्सर इतनी महंगी होती हैंं कि मध्यमवर्ग तक के लोगों के लिए इन्हें खरीदना दुष्कर होता है। अतः वे अपने पुराने अनुभव के आधार पर छिटपुट प्रतिजैविक दवाइयां, बिना उनकी गुणवत्ता, संरचना व कुप्रभाव जाने बाजार से खरीदने तथा स्वयं ही अपना और अपने परिजनों का उपचार करने जैसा ख़तरा मोल लेने को विवश होते हैं। यद्यपि जैसा कि ऊपर वर्णित है, प्रतिजैविक दवाइयों की पहचान करना बेहद आसान होता है तथापि इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि देश के अधिकतर शिक्षित जन भी बुनियादी जानकारी के अभाव में ऐसा नहीं कर पाते हैं। “A little knowledge is a dangerous thing” (नीम हकीम ख़तरा-ए- जान) लोकोक्ति संभवतः हम भारतीयों के लिए ही गढ़ी गई है। इससे पूर्व कि प्रतिजैविक दवाओं के अविवेकपूर्ण प्रयोग सम्बन्धी आंकड़ों का प्रतिशत और बढ़े तथा समस्या का हल नामुमकिन हो जाए, सरकार को चाहिए कि बिना उचित पर्ची के, ऐसी दवाइयां बेचने वालों के लिए कड़ी सज़ा सुनिश्चित की जाए तथा देश में स्वास्थ्य सेवाओं का सुदृढ़ीकरण करके इन पर आने वाले व्यय को युक्तिसंगत बनाया जाए ताकि निर्धन और मध्यमवर्ग की जेब पर पड़ने वाला बोझ कम हो तथा उन्हें अहसास हो कि उनके द्वारा निर्वाचित सरकार को उनके जीवन की कुछ चिंता तो है।
-अशोक कालिया,
(सेवानिवृत्त आबकारी व कराधान अधिकारी)
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