नागरिकता संशोधन कानून पर फिर शुरू हुआ दुष्प्रचार
1 min read
यह विपक्षी दलों का दायित्व होता है कि वे सरकार के कार्यों, नीतियों में त्रुटियां ढूंढें व सरकार के अनुचित कार्यों का विरोध करते हुए उसे सही निर्णय लेने के लिए विवश करें। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि विपक्षी दल सरकार के हर प्रकार के निर्णयों का विरोध करना अपना अधिकार समझे। पिछले लंबे अरसे से देखने में आ रहा है कि विपक्षी दल अपने राजनीतिक हितों के अनुसार सरकार का विरोध करते आ रहे हैं। इससे भले ही देश या देश की मर्यादा का हनन हो रहा हो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
हाल ही में लागू किए गए नागरिकता संशोधन कानून पर कुछ विपक्षी दलों द्वारा व्यक्त की जा रही प्रतिक्रिया को देखते हुए यही लगता है कि राजनीतिक दलों को हर मुद्दे पर जनता को भ्रमित कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी होती है। दिसंबर 2019 में संसद से पारित हुए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के नियम तय होते ही उन पर अमल शुरू हो गया है। यह कानून भारत के तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आए इन देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए है।
देश विभाजन के बाद भारत पाकिस्तान में नेहरू- लियाकत नामक जो समझौता हुआ था उसके तहत यह तय हुआ था कि दोनों देश अपने यहां के अल्पसंख्यकों का ध्यान रखेंगे। पाकिस्तान इस समझौते के पालन के प्रति कभी ईमानदार नहीं रहा। वहां अल्पसंख्यकों का जो उत्पीड़न शुरू हुआ वह समय के साथ बढ़ता ही गया और आज भी जारी है। सीएए में संशोधन के विरोध में 2020 में देश के अनेक हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए थे। दिल्ली में तो शाहीन बाग में महीनों तक एक सड़क को बंद कर धरना दिया गया था। इसी धरने के कारण दिल्ली में भीषण दंगे हुए जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे।
सीएए पर अमल की घोषणा होते ही कई विपक्षी दलों ने उसका फिर से वैसा ही विरोध शुरू कर दिया है जैसा 4 साल पहले किया था। इस मुद्दे पर अरविंद केजरीवाल का कहना है कि मोदी सरकार उक्त तीनों देशों के अल्पसंख्यकों को बुलाकर उन्हें नौकरी देगी और उसके लिए घर बनाएगी। वे यह कहकर भी लोगों को डराने का काम कर रहे हैं कि यदि इन देशों के करोड़ों लोग भारत आ जाएंगे तो अपराध बढ़ जाएंगे और कानून एवं व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। वह जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि सीएए उक्त तीनों देशों के अल्पसंख्यकों को बुलाकर नागरिकता देने का कानून नहीं है बल्कि केवल उनके लिए है जो 2014 तक भारत आ चुके हैं। बंगाल, तमिलनाडु एवं केरल के मुख्यमंत्री भी कह रहे हैं कि वे इस कानून को अपने यहां लागू नहीं होने देंगे जबकि नागरिकता देना केंद्र सरकार का काम है, किसी राज्य सरकार का नहीं। यह ध्यान रहे कि अतीत में बंगाल, केरल, राजस्थान और पंजाब की तत्कालीन सरकारें अपनी विधानसभाओं में सीएए के विरोध में प्रस्ताव पारित कर चुकी हैं।
यह विडंबना है कि विपक्षी दल वोट बैंक की राजनीति के चलते अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए मुसलमानों को इन देशों के अल्पसंख्यकों के समक्ष रखना चाह रहे हैं। और इसकी अनदेखी कर रहे हैं कि वे धार्मिक प्रताड़ना का शिकार नहीं है। भारत ऐसी स्थिति में भी नहीं है कि जो भी आना चाहे उसे आने दे और उसे नागरिकता भी दे। भारत की आबादी इस समय विश्व में सबसे अधिक हो चुकी है। कुल मिलाकर विपक्षी दलों को न तो पड़ोसी देशों से धार्मिक रूप से उत्पीड़न का शिकार होकर भारत आए शरणार्थियों की चिंता है न ही उनके द्वारा भ्रम फैलाए जाने के उपरांत पैदा होने वाली परिस्थितियों की। उन्हें तो सिर्फ और सिर्फ चिन्ता अपने वोट बैंक की है।