नूंह घटनाक्रम- सबक या भविष्य दर्शन
1 min readपिछले दिनों हरियाणा के नूंह में जो कुछ हुआ उससे दोनों समुदायों के आपसी विश्वास में कमी आना स्वाभाविक है। ऐसी घटनाएं पहले पश्चिमी बंगाल, राजस्थान सहित कुछ अन्य प्रदेशों में भी देखने को मिली है जिन में एक दूसरे के प्रति धार्मिक नफरत स्पष्ट झलकती है। लेकिन नूंह की घटना ने दोनों समुदायों के बीच दूरियां और बढ़ा दी है। देश में आजादी के बाद से ही हिंदू- मुस्लिम दंगे होना आम बात रही है। देश के विभाजन के समय भी दोनों समुदायों के बीच हुए टकराव में लाखों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। स्पष्ट है कि दोनों समुदायों के बीच जहां आपसी विश्वास का पूरी तरह अभाव है वहीं दूसरे समुदाय के प्रति मन में भरी नफरत अक्सर झलक उठती है। दोनों तरफ के धर्मगुरु व देश के राजनीतिक दल भी इस अविश्वास और नफरत की खाई को भरने की दिशा में कुछ करने की अपेक्षा इसे और चौड़ा करने का काम करते नजर आते हैं। देश की प्रमुख समाचार चैनल भी इस मुद्दे पर नियमित डिबेट चलाकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में लगे हुए हैं। यही कारण है कि देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां नूंह की घटना पर अपने स्वार्थ के हिसाब से बयानबाजी करने में जुटी हुई हैं। नूंह में स्थिति कितनी विकट रही होगी इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यात्रा में शामिल करीब ढाई हजार लोग मंदिर में छिप गए और उन्हें घंटों वहां बंद रहना पड़ा। इनमें महिलाएं और बच्चे भी थे। चारों तरफ से गोलियां चल रही थी, पत्थर बरसाए जा रहे थे और नारे लग रहे थे। नूंह में जो कुछ भी हुआ उससे सीधा निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि लंबे समय से इसकी तैयारी की गई थी व लोगों को इसके लिए प्रशिक्षित भी किया गया था। उपद्रव के लिए हरसंभव संसाधन जुटाए गए थे व अंदर ही अंदर प्रचार तंत्र का उपयोग करते हुए जनसंपर्क किया गया था। अनेकों स्थानों पर इस बारे बैठकें हुई होगी व लगता है हमलावरों ने तय कर लिया था कि कानून व्यवस्था का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। बेशक इससे हरियाणा पुलिस प्रशासन पर भी सवाल खड़े होते है। एक पक्ष की हिंसा की इतनी तैयारी थी और पुलिस को भनक तक क्यों नहीं लगी? जबकि पुलिस से अनुमति लेकर यात्रा निकाली गई थी। इस क्षेत्र में पहले भी ऐसी अनेक छोटी मोटी घटनाएं हुई है जो सरकारों को चेतावनी देने के लिए पर्याप्त थी। लगता है जैसे पुलिस के लिए मेवात क्षेत्र में चल रही मजहबी कट्टरता की गतिविधियों से कोई लेना-देना ही नहीं था। अगर पहले से सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद होती तो साजिश रचने वाले पकड़ में आ सकते थे। हालांकि इससे देश में जड़ जमा चुके धार्मिक कट्टरपंथ और दूसरे धर्मों के विरुद्ध हिंसा करने की भावना के मूल पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अब हालात यह हो चुके हैं कि देश में धार्मिक उत्सव या यात्राएं सुरक्षा के घेरे में ही की जा सकेंगी। नूंह की घटना को एक भीड़ द्वारा उन्माद में की गई घटना नहीं माना जा सकता बल्कि इसे एक समुदाय द्वारा सोची-समझी रणनीति के तहत की गई कार्रवाई व एक प्रयोग कहा जा सकता है। अब प्रश्न यह उठता है कि देश के भीतर दोनों समुदायों के बीच बढ़ती इस दूरी को भविष्य में कभी कम किया जा सकेगा? इसकी संभावना इसलिए भी नहीं है क्योंकि समाज में ऐसे लोगों का अभाव है जो अपने समुदाय की कमियों को उजागर करने के लिए खुलकर सामने आएं। अगर कोई ऐसी कोशिश करता भी है तो कट्टरपंथी उनकी आवाज को दबाने के लिए हर समय तैयार रहते हैं। दूसरी तरफ देश की राजनीतिक व्यवस्था भी इस आग में अपना स्वार्थ सिद्ध करने में मग्न है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि भविष्य में देशवासियों को इस धार्मिक कट्टरता से उत्पन्न आग की लपटों के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। – हिमाल चंद शर्मा