शिक्षा क्षेत्र के लिए वरदान साबित हो रही है नैनो सैटेलाइट
नई दिल्ली, देश में तेजी से उभरती नैनो सैटेलाइट तकनीक (Nano Satellite Technology) अब युवाओं, स्टार्टअप्स और शैक्षणिक संस्थानों की पहुंच में आ चुकी है। इस पहल के तहत देशभर के छात्र और वैज्ञानिक मिलकर छोटे लेकिन अत्यधिक सक्षम उपग्रह बना रहे हैं, जिन्हें इसरो द्वारा अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया जा रहा है।
क्या होती है नैनो सैटेलाइट?
नैनो सैटेलाइट वे छोटे उपग्रह होते हैं जिनका वजन 1 से 10 किलोग्राम के बीच होता है। आकार में छोटे होने के बावजूद इनमें आधुनिक संचार, डेटा संग्रहण और निगरानी की सभी सुविधाएं होती हैं। इनका प्रयोग पृथ्वी अवलोकन, मौसम अनुमान, आपदा प्रबंधन, संचार और शिक्षा के क्षेत्र में किया जा रहा है।
किन तकनीकों का होता है प्रयोग?
नैनो सैटेलाइट में निम्नलिखित अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया जाता है:
माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स: अत्यंत छोटे सर्किट जो सैटेलाइट को हल्का बनाते हैं।
सोलर पैनल पावर सिस्टम: ऊर्जा प्राप्ति के लिए सौर पैनलों का प्रयोग।
थर्मल कंट्रोल यूनिट: तापमान को संतुलित रखने वाली प्रणाली।
AI आधारित नियंत्रण प्रणाली: स्वचालित निर्णय लेने की क्षमता।
कम लागत निर्माण तकनीक: सीमित संसाधनों में प्रभावी डिजाइन।
भारत की पहल और उपलब्धियाँ
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने न केवल अपने स्वयं के नैनो सैटेलाइट बनाए हैं, बल्कि छात्र परियोजनाओं को भी बढ़ावा दिया है।STUDSAT, Jugnu, Pratham, INSPIRESat-1जैसे कई मिशन छात्र-शिक्षक सहयोग का उदाहरण हैं। हाल ही में देश के कुछ विश्वविद्यालयों ने स्वदेशी नैनो सैटेलाइट तैयार कर अंतरिक्ष में सफलता से प्रक्षेपित किए हैं।
शिक्षा क्षेत्र के लिए वरदान
नैनो सैटेलाइट तकनीक अब केवल प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिक संस्थानों तक सीमित नहीं रही। यह स्कूली और कॉलेज के छात्रों को व्यावहारिक शिक्षा प्रदान कर रही है। छात्र अब रॉकेट साइंस, कोडिंग, सर्किट डिज़ाइन और संचार प्रणाली को प्रत्यक्ष रूप से समझ पा रहे हैं। इससे नवाचार और विज्ञान के क्षेत्र में रुचि को बढ़ावा मिल रहा है।
भविष्य की दिशा
विशेषज्ञों के अनुसार, आने वाले वर्षों में नैनो सैटेलाइट तकनीक ग्रामीण विकास, कृषि निगरानी और जलवायु परिवर्तन के अध्ययन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। साथ ही यह भारत कोस्पेस टेक्नोलॉजीके वैश्विक मंच पर अग्रणी बना सकती है।
