February 23, 2025

देश के लिए घातक है चुनावी रेवड़ियां

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राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की घोषणाएं करने का चलन लगातार बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता प्राप्ति के लिए इसे एक आसान तरीका मान लिया गया है। बड़ी बात यह है कि राजनीतिक दलों के इस झांसे में मतदाता लगातार आ रहे हैं। चुनावी रेवड़ियां बांटने वाले राजनीतिक दलों को ऐसी घोषणाओं का सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में आशानुरूप लाभ भी प्राप्त हो रहा है। यह प्रक्रिया स्वस्थ लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है और निकट भविष्य में देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा।

होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक दल चुनावों के दौरान मतदाताओं के समक्ष देश- प्रदेश के साथ-साथ आम जनता को आर्थिक रूप से विकसित करने की योजनाएं रखें व एक कुशल, न्यायपूर्ण प्रशासन देने का वादा करें। लेकिन इसके विपरीत लोगों को भ्रमित करने व उन्हें मुफ्तखोरी की लत लगाने का प्रयास किया जाता है। वैसे तो अधिकतर ऐसे चुनावी वादे पूरे नहीं किए जाते व जो थोड़े बहुत वादे किंतु- परंतु के साथ पूरे किए भी जाते हैं उनका बोझ भी आम जनता को ही ढोना पड़ता है।

एक दशक पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस तरह की चुनावी रेवड़ियां बांटने का जो सिलसिला एक राजनीतिक दल ने शुरू किया था उससे प्रेरित होकर अन्य राजनीतिक पार्टियां भी अब खुलकर ‘मुफ्त बांट’ का खेल खेलने लगी है। हो सकता है कि कुछ जिम्मेदार राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़ी बांटने के इस चुनावी खेल में शामिल न होना चाहें, लेकिन सत्ता की दौड़ में शामिल रहने के लिए उन्हें भी मजबूरन यह राह अपनाना पड़ रहा है।

राजनीतिक दलों में चुनावों के दौरान मुफ्त रेवड़ियां बांटने की बढ़ती संस्कृति को रोकने के लिए चुनाव आयोग भी गंभीर प्रयास कर रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट भी इस विषय पर राजनीतिक दलों की जवाबदेही तय करने की दिशा में आगे बढ़ता नजर आ रहा है। गत दिवस सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न राज्य सरकारों की ओर से की जाने वाली लोक लुभावन घोषणाओं का संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश, राजस्थान सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार, चुनाव आयोग व रिजर्व बैंक को भी नोटिस जारी किया है। चूंकि मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव निकट है व वहां की सरकारें लोक लुभावन घोषणाएं करने में जुटी हुई है। ऐसी ही घोषणाएं अन्य चुनाव वाले राज्यों में भी की जा रही है। इसे लेकर दायर एक जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकारें अपने अंतिम वर्ष में खुलकर लोक लुभावनी घोषणाएं कर देती हैं और ऐसा करते समय यह ध्यान नहीं रखा जाता कि राज्य की आर्थिक स्थिति उनके वादों को पूरा करने की अनुमति देती भी है या नहीं।

भारत जैसे देश में जहां करोड़ों लोगों को निर्धनता से उबारना है वहां जन कल्याण की योजनाएं चलाना आवश्यक है लेकिन जन कल्याण के काम करने और रेवड़ियां बांटने के बीच के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है। जब एक दल ऐसी चुनावी रेवड़ियां बांटता है तो दूसरे दल को भी ऐसा कुछ करने के लिए विवश होना पड़ता है। राज्य की आर्थिक स्थिति की अनदेखी करते हुए लोक लुभावन वादे करने से निर्धन लोगों का उत्थान नहीं किया जा सकता। उनका उत्थान तभी हो सकता है जब राज्य उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का प्रयास करें। राजनीतिक दल आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों ही नहीं बल्कि संपन्न वर्ग को भी अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऐसी चुनावी घोषणाएं कर रहे हैं।

कमजोर आर्थिक स्थिति वाले राज्यों में भी राजनीतिक दल चुनावी रेवड़ियां बांटने की संस्कृति को अपनाए हुए हैं। यह संस्कृति देर – सवेर देश व प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर बड़ा घातक असर डालेगी। जरूरत इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट व चुनाव आयोग इस बारे सख्त नियम-कानून तय करें जिससे राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त रेवड़ी बांटने की बढ़ती संस्कृति पर रोक लग सके। -हिमाल चन्द शर्मा