एक मजबूर राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित होती कांग्रेस
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कांग्रेस एक मजबूत राजनीतिक पार्टी से मजबूर राजनीतिक दल में परिवर्तित होती जा रही है। कांग्रेस इस स्थिति में पहुंच गई है कि उसे छोटे-छोटे राजनीतिक दलों की शर्तों पर समझौते करने पड़ रहे हैं। 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 414 सीटें जीती थी लेकिन आज हालात यह है कि कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करती प्रतीत हो रही है।
उत्तर प्रदेश को किसी समय कांग्रेस का गढ़ माना जाता था लेकिन आज समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन करते हुए कांग्रेस 80 में से मात्र 17 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हो गई है। यही हालत दिल्ली में भी है। दिल्ली में कांग्रेस तीन सीटों पर व आम आदमी पार्टी चार सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए सहमति बना चुके हैं। जिन क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की राजनीतिक जमीन हथिया ली है आज उन्हीं दलों की शर्तों पर चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस विवश है।
स्पष्ट है कि कांग्रेस ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी को अपने से बड़ा दल मान लिया है। यह दोनों दल हरियाणा गुजरात और गोवा में भी मिलकर चुनाव लड़ने पर सहमत है। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस जिस तरह 80 में से महज 17 सीटों पर चुनाव लड़ने पर सहमत हो गई है उससे भी उसकी विवशता प्रकट होती है। एक समय उत्तर प्रदेश को कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। वहां वह गठबंधन के नाम पर जिस तरह अपनी राजनीतिक जमीन छोड़ने को तैयार हुई है उससे तो वह वहां अपना जनाधार और अधिक गंवाएगी। ऐसे गठबंधन करके और इस स्तर पर क्षेत्रीय दलों को बड़े भाई का दर्जा देकर वह अन्य राज्यों में भी अपना जनाधार खो सकती है।
ऐसा लगता है कि कांग्रेस का एकमात्र उद्देश्य किसी तरह पिछले दो लोकसभा चुनावों के मुकाबले कुछ अधिक सीटें जीतने मात्र का है न कि अपने गठबंधन आईएनडीआईए के जरिए भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को कोई ठोस चुनौती देना है। यह देखना दयनीय है कि जब कांग्रेस को एक राष्ट्रीय दल के रूप में अपनी मजबूती कायम करने के प्रयास करने चाहिए थे तब वह सीमित लक्ष्य को साधती नजर आ रही है। इससे तो उसकी राजनीतिक हैसियत और कम होगी।
कांग्रेस चाहे जो भी दावा करे, उसने समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी से मिलकर जैसे समझौते किए उनसे इंडी गठबंधन को कोई राष्ट्रीय स्वरूप मिलने की उम्मीद नहीं है। बंगाल में ममता बनर्जी भी कांग्रेस को मात्र दो सीटें दे रही थी। बंगाल के अलावा अन्य राज्यों में भी कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेकती नजर आई है। यह देखना दुखद है कि राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत रखने वाली कांग्रेस आज कहां पहुंच गई है। कांग्रेस नेतृत्व को इस बारे विचार करना चाहिए कि उसे क्षेत्रीय पार्टियों की सहायक पार्टी की भूमिका में रहना है या फिर अपनी नीतियों में बदलाव करते हुए एक मजबूत राष्ट्रीय पार्टी का स्वरूप फिर से हासिल करना है।